ईर्ष्या और द्वेष मानव की विकृत मानसिकताके प्रतीक

क्या है ईर्ष्या


यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो ईष्यां मनुष्य की अत्यन्त कुत्सित मनोवृत्तिका परिणाम है, जिसकी जितनी भी निन्दा की जाय, कम है। लेकिन दुःखकी बात तो यह है कि आज असाधारण रूपसे ईर्ष्यालु व्यक्तियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। इसीलिये हमारे देशकी प्रगति अद्यावधि उतनी नहीं हो पायी है, जितनी होनी चाहिये थी।

जब किसीकी प्रगति अथवा किसोकी उन्नति किसी अन्यको अप्रिय लगने लगे या फिर उसे सालने लगे तो वहीं ईष्यांका जन्म होता है। अन्य शब्दोंमें अप्रकट रोष अथवा अप्रकट क्रोधका नाम ही ईर्ष्या है। मानवकी यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह दूसरोंके उत्कर्षको सहन नहीं कर पाता। वह अपनेसे अधिक सम्पन्न व्यक्तिके प्रति ईर्ष्यालु बनकर उसको नीचा दिखानेका प्रयास करता है। इससे उसे कोई विशेष लाभ नहीं होता। हाँ, उसे केवल इतना आत्मसन्तोष जरूर मिलता है कि उसने मैदानमें किसी दूसरेको पछाड़ दिया अथवा किसी अन्यके प्रति किसी अन्यकी बढ़ती हुई सद्भावनाको काफी कुछ कम कर दिया।

कैसी विडम्बना है कि आज हम एक-दूसरेको आगे बढ़ने में सहयोग देनेकी अपेक्षा ईर्ष्यावश उसकी टाँग खींच रहे हैं तथा उसे नीचा दिखानेका भरसक प्रयास कर रहे हैं। इतना ही नहीं, आज हम उसके प्रति गन्दा प्रचार भी कर रहे हैं तथा उसके समस्त गुणोंको तोड़-मरोड़कर उसके दोषोंके रूपमें प्रकट कर रहे हैं। यह सब ईष्यकि कारण ही तो है। यद्यपि हम भी चाहते हैं कि हमारा देश आगे बढ़े और प्रगति करे तथा हमारे देशमें भी महान् एवं उल्लेखनीय कार्य हों, लेकिन ईर्ष्यारूपी अग्निसे जब हम अपने दामनको जलानेसे बचा सकें, तब न?


ईर्ष्या का एक प्रमुख कारण 


ईर्ष्याका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम किसी अन्यको यश, वैभव, ज्ञान, बुद्धि तथा व्यापारके क्षेत्रमें आगे बढ़ता हुआ देख ही नहीं सकते। यहाँतक कि किसी औरकी प्रशंसा भी हमसे सुनी नहीं जाती। यदि कोई व्यक्ति कोई अच्छा काम कर रहा हो, जिसमें उसका यश और उसकी कीर्ति निहित हो तो हम ईर्ष्यावश उस कार्यको सम्पादित होने नहीं देते तथा उस व्यक्तिको हर प्रकारसे नुकसान पहुँचानेकी कोशिश करते हैं। अन्य शब्दोंमें हम यही चाहते हैं कि हमारे अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्तिको किसी भी कार्यका कभी कोई श्रेय न मिले। बस, यही हमारे चरित्रकी सबसे बड़ी कमजोरी है; जिसे हमें दूर करना होगा। सुख और शान्तिका जीवन हम तभी जी सकते हैं, जब हम अपने अन्दर ईर्ष्याको किसी भी स्थितिमें पुष्पित और पल्लवित न होने दें।


भारतीय ऋषियों के पर प्रतिकूल सिंद्धात


भारतीय ऋषियों ने सदाचार और सद्वृत्तिपर विशेष बल दिया है। विभिन्न परिस्थितियोंमें आचरणको शुद्धता कैसे बनी रहे ? इस विषयपर गम्भीर विचारकर उन्होंने मानव-मनकी विभिन्न प्रवृत्तियोंका विस्तृत अध्ययन किया है। तदनन्तर वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि ईर्ष्या और द्वेषसे रहित जीवन ही सच्चा जीवन है, जिससे हमें परम शान्तिकी प्राप्ति होती है। अतः हमें ऐ से ही जीवनको अपनानेका भरसक प्रयास करना चाहिये।

प्यास एक मानसिक विकार है। इसके बम से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है, जिससे उसे लाभ होता है- अनाहित का ध्यान ही नहीं रहता। वास्तव में आगे बढ़ने की होड़ तो मनुष्य के अभ्युदय लक्षण हैं, वैज्ञानिक बुद्धि और समर्थ व्यक्तिगत वैज्ञानिक प्रयास न कर स्वयं आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं, जबकि मूर्ख और आक्षेप व्यक्ति अपने में आगे बढ़ने की क्षमता न देखते हुए लक्ष्यों को नीचे गिराने का प्रयास करते हैं।


ईर्ष्या का स्वास्थ्य पर प्रभाव


ईर्ष्या का स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सुप्रसिद्ध चिन्तक काका साहब कालेलकरने कहा है- 'काम, क्रोध और भयके कारण शरीरमें जो विकृतियाँ पैदा होती हैं और कभी-कभी जो रोग पैदा होते हैं, उसका कोई प्रमाण तो है नहीं। किंतु ईर्ष्याकी मात्रा बढ़नेपर मनुष्यके पेटमें दर्द जरूर शुरू हो जाता है। वैसे पेटदर्दका यहीं एकमात्र कारण नहीं है, लेकिन अन्य अनेक कारणोंमेंसे यह भी एक प्रमुख कारण है। यही नहीं, जब काम, क्रोध और भयके कारण शरीरमें विकृतियाँ पैदा हो सकती हैं तो लोभ, मोह और ईष्यांके कारण भी हमारा शरीर हो सकता है।'

प्रभावित सन्त तिरुवल्लुवरने ईर्ष्याके विषयमें लिखा है- ईर्ष्या करनेवालोंके लिये ईर्ष्याकी बला ही काफी है, क्योंकि ईर्ष्या करनेवाले ईर्ष्याको छोड़ भी दें तो भी ईर्ष्या उन्हें कभी नहीं छोड़ती और उनका सर्वनाश कर देती है। दुष्टा ईर्ष्या दरिद्रतारूपी दानवको बुलाकर मनुष्यको नरकके द्वारतक पहुँचा देती है।'


दार्शनिकों के प्रामाणिक विचार


किसी विद्वान् दार्शनिक का कथन है-'वह व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं रह सकता, जो अपनेसे अधिक सुखी व्यक्तिको देखकर क्लेश पाता है। उसे तो अपनी ही वस्तुएँ अधिक खुश रखती हैं।' अब आइये, द्वेषपर भी विचार कर लिया जाय। द्वेषका अर्थ है दूसरोंकी निन्दाकर मिथ्या आत्मसन्तोष प्राप्त करना। द्वेषका क्षेत्र विस्तृत है। द्वेषका विष अत्यन्त भयंकर होता है, क्योंकि द्वेषसे ही परनिंदा का जन्म होता है और यही परनिन्दा आगे की ओर घृणा का रूप धारण कर लेती है। घृणा समानता का लक्षण है जबकि परनिंदा पाप धर्मविरुद्ध है। तभी तो सन्तों ने कहा कि पापसे कारण है हीनभावना और परिस्थितिजन्य और घृणा करो, पापीसे नहीं। द्वेषका मूल असन्तोष। इस विषयमें महात्माओंका विचार है कि मनुष्य केवल यह न देखे कि कितने लोग उससे अधिक सम्पन्न हैं, अपितु वह यह भी देखे कि कितनोंके पास इतने भी साधन नहीं हैं, जितने उसके पास हैं। ऐसी ही सोचसे मनुष्यका द्वेष-भाव नष्ट हो सकता है तथा द्वेषके न रहनेपर फिर उसे दूसरोंकी निन्दा और घृणासे भी छुटकारा मिल जाता है। परनिन्दाका रोग बाल्यावस्थासे ही लग जाता है।

परनिन्दा करते सुनता है। बच्चोंमें यह रोग बड़ोंके अनुकरणद्वारा ही उत्पन्न होता है। अतः माता-पिताका यह कर्तव्य है कि यदि वे बच्चोंका जीवन सँवारना चाहते हैं तो परनिन्दासे बचें। नैतिकताकी पुस्तक पढ़ने-पढ़ानेसे नैतिकता नहीं आती, अपितु नैतिकता आती है नैतिक बातोंके अनुकरणसे। इसलिये माता-पिताको अपने नैतिक आचरणपर विशेष ध्यान देना चाहिये; क्योंकि उनका नैतिक आचरण ही बच्चोंके लिये प्रेरणाका स्रोत है, जो बच्चोंके भविष्यको निखारता है। यह सत्य है कि मनुष्य सुखी जीवन-यापन करना चाहता है, किंतु अफसोस कि जिस उपायसे उसे सुख प्राप्त होता है, वह उस उपायको न कर अन्य ऐसे उपायोंको अपनाता है, जो सदैव उसे दुःख प्रदान करते हैं। यही मनुष्यकी अज्ञानता है और इसी अज्ञानताके आनन्दमें निमग्न होकर मनुष्य द्वेष तथा परनिन्दाके पीछे भागता-फिरता है और जीवनपर्यन्त दुःखी रहता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह ईर्ष्या, द्वेष और परनिन्दासे बचे तथा हृदयसे इन बुराइयोंको दूर करते हुए सदैव दूसरोंका भला करनेकी कोशिश करे। इसके अतिरिक्त उसे सत्कार्य करनेवालोंसे भी ईर्ष्या न कर उनके सत्कार्योंकी प्रशंसा करनी चाहिये।


निष्कर्ष


प्रायः मनुष्य अपने स्वार्थके लिये राष्ट्रका अहित कर बैठता है, जबकि उसे ऐसा न कर राष्ट्रकी प्रगति तथा उसके उन्नयन और विकासमें अपना सक्रिय योगदान करना चाहिये। वर्तमान परिप्रेक्ष्यमें आज बहुजनहिताय और बहुजनसुखायके सिद्धान्तकी आवश्यकता नहीं है, अपितु आवश्यकता है तो मात्र सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखायके सिद्धान्त की। वास्तवमें आज इसीमें समूचे राष्ट्रके साथ- ही-साथ हम सबका भी हित सन्निहित है।

जबतक मन विलीन नहीं होता, तबतक लक्ष्मण का सर्वथा विनाश नहीं होता और जबतक मन विलीन नहीं होता, तबतक चित्त शांत नहीं होता। जबतक परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तबतक चित्तकी शांति कहां होती है और जब तक चित्तकी शांति नहीं होती, तबतक परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। जबतक लक्ष्मण का सर्वथा नाश नहीं होता, तबतक तत्त्वज्ञान कहां से होगा और जबतक तत्त्वज्ञान का विनाश नहीं होता, तबतक वासना का सर्वथा विनाश नहीं होता। इसलिए परमात्माका यथार्थ ज्ञान, मनोनाश नहीं होगा। इसलिए सूर्य का यथार्थ ज्ञान मनोनाश और वासनाक्षय- ये त्रि ही एक-दूसरे के कारण हैं। मूलतः ये दुस्साध्य हैं, साक्षात् असाध्य नहीं। विशेष प्रयास करने से ये तीन कार्य सिद्ध हो सकते हैं।