जीवनचर्या के दो आवश्यक कृत्य - यज्ञ और तप


जीवनचर्या के दो आवश्यक कृत्य - यज्ञ और तप

यज्ञ का अर्थ

यज्ञ शब्द के गीता में दो प्रकार के अर्थ हैं-एक तो विद्वानोंके अनुसार शब्दके पूर्वापर सम्बन्ध को देखकर बुद्धि के अनुसार किया जाता है। इनमें अनेक अर्थ विवादास्पद भी होते हैं, दूसरा अर्थ है तात्त्विक अर्थ। अनुष्ठान अथवा तपसे जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है- एकदम पवित्र हो जाता है तब श्लोक सामने आते ही जैसे वीणाके तारोंको छेड़ते ही स्वर निकलता है-वैसे ही आत्मार्मेसे अर्थ निकलता है। वह अर्थ बिलकुल शुद्ध होता है। परंतु वह राग-द्वेषरहित हृदयमें ही स्फुरित होता है। द्वैत-अद्वैत, भक्ति, कर्म, योग आदिपर विवाद करनेवाले विद्वानोंके हृदयमें वैसा अर्थ स्फुरित नहीं होता। जैसे-जैसे भक्तिसे, जपसे, तपसे हृदय निष्पाप होता जाता है-वैसे-वैसे ही ज्ञानका झरना आत्मामेंसे बहने लगता है; क्योंकि वास्तविक ज्ञानका झरना तो आत्मामें ही विद्यमान है।


यज्ञ का तात्पर्य समझे

यज्ञ का अर्थ समझना हो तो अपनी आँखोंके सामने तीन वस्तुएँ रखे। एक तो प्रकृतिका विशाल समुद्र। जैसे समुद्रमें तरंगें उठती रहती हैं और शान्त होती रहती हैं, वैसे ही इस त्रिगुणात्मक प्रकृतिमें अनेक आकार खड़े होते हैं और फिर उसीमें समा जाते हैं। यह दृश्य विशाल है। प्रभुप्रेरणासे यह होता रहता है। प्रत्येक आकारको उत्पन्न। होते और नष्ट होते देखनेके लिये परमात्मा उन सब आकारोंमें बैठकर उन्हें देखता है। प्रकृति, प्रकृतिके प्रेरक प्रभु और प्रकृतिके दृश्य देखनेवाला उसमें सर्वत्र व्याप्त आत्मा-यह त्रिपुटी है। प्रकृति अर्थात् हवन सामग्री, होता अर्थात् परमात्मा, हवन-अग्नि अर्थात् सर्वत्र व्याप्त आत्मा। इन त्रिपुटियोंका यज्ञ। प्रकृतिको आहुति दी जाती है, होता होम करता है और पुनः प्रकृतिमेंसे नया दृश्य उत्पन्न होता है। अर्थात् प्रकृतिके प्रत्येक दृश्यको परमात्मामें हवन करना-यह यज्ञ है। खाना यज्ञ, जल पीना यज्ञ, श्वास लेना यज्ञ, खेती यज्ञ, व्यापार यज्ञ और युद्ध भी यज्ञ। इस प्रकारकी सभी क्रियाएँ, जिनमें किसी एक प्रकृति- समुदायका हवन किया जाय और उसका रूप परिवर्तित हो जाय वह सब यज्ञ है। इन सब यज्ञोंके दो फल हैं, एक तो प्रकृतिका स्वयंका रूपान्तरण तथा दूसरा होता की भावनानुसार भोगोंकी प्राप्ति। जैसे महाराज श्री दशरथजी ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया, उसमें काष्ठ तथा हवनसामग्रीका जलकर प्रकृतिमें घुल मिल जाना एक फल और महाराज दशरथ होता थे, उनकी भावनानुसार उन्हें पुत्रोंकी प्राप्ति यह दूसरा फल। पहला फल तो प्रकृतिके गुणोंके अनुसार चलता रहता है, दूसरा फल श्रद्धा और विधिके अनुसार प्राप्त होता है।


यज्ञ का फल

यदि यज्ञ श्रद्धा और शास्त्रसम्मत विधिसे हो तो उसका इच्छित फल मिलता है, नहीं तो उलटा फल मिलता है। फलकी इच्छासे जो यज्ञक्रिया की जाती है, वह बन्धनकारक है, कर्ताको फल भोगना पड़ता है। इसके विपरीत फलेच्छारहित होकर अपना कर्तव्य समझकर जो यज्ञ करता है और उसका फल ईश्वरको अर्पण कर देता है- वह स्वतः मुक्त रहता है। इन सब यज्ञोंमें किसी प्रकारकी फलेच्छा न रखकर जपयज्ञ करे तो सर्वश्रेष्ठ है-ऐसा भगवान्ने कहा है और वह ठीक ही है- 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ।'


सरलता से समझे

समुद्रके तटपर बैठा व्यक्ति चाहे या न चाहे वायुके झोंकोंसे समुद्रमें लहरें तो उठेंगी और शान्त होंगी। इसमें तटपर बैठे द्रष्टाकी कोई कारीगरी काम नहीं आयेगी। उसी प्रकार यहाँ भी परमात्माप्रेरित इस प्रकृतिरूपी सागरमें अनेक दृश्य उत्पन्न होंगे और नष्ट होंगे-इसमें हमारी चेष्टासे यत्किंचित् भी अन्तर नहीं पड़ सकता। इस विशाल क्रियामें अन्तर डालनेको चेष्टा करनेवाले, अन्तर डालते दीखनेवाले, सुधार करनेवाले, परमात्मा तथा मृत्युकी हँसी करनेवाले-सब-के-सब इसमें समा गये-लीन हो गये। सब कहानीके रूपमें रह गये, बहुत-से तो इस प्रकृति, सागरके थपेड़ोंमें कहाँ खो गये, पता ही नहीं चलता।


जीवात्मा का यज्ञ से सम्बंध

जीवात्माके दो काम हैं-एक तो देखना और दूसरा उसका फल हँसना या रोना। परमात्माके निमित्त - परमात्मासे ही सब चल रहा है, मैं भी उन्हींके वश होकर चल रहा हूँ-यह जो जानता है, वह हँसता है। लेकिन जो यह मानता है कि यह सब मुझसे अथवा दूसरे लोगोंसे चल रहा है- वह रोता है। तत्त्वज्ञान ग्रन्थोंमें नहीं है, ग्रन्थोंमें तो बहुत अल्प ज्ञान है। आत्मामेंसे जब ज्ञानकी लहरें निकलती हैं, तब उनके स्वरसे हमें आश्चर्य होता है। 

परमात्माके नामका जप श्रद्धापूर्वक करो। तीन बात तय कर लो-मैं हूँ, जगत् है और परमात्मा हैं। परमात्मा जगत्‌के कर्ता हैं। मनुष्यजन्ममें अथवा अन्य किसी भी जन्ममें शरीर धारण करते ही फिर चाहे वह ब्रह्मा या इन्द्रका ही शरीर क्यों न हो-सुख-दुःख पीछे लग जाते हैं। इसका कारण है कि शरीरमें रहनेवाले जीवको-चाहे कोई भी शरीर क्यों न हो, शरीरके अनुकूल सुख और शरीरके प्रतिकूल दुःख होता ही है। यह शरीर तो हमने धारण कर लिया अब दूसरा शरीर धारण न करना पड़े- ऐसा विचार होनेपर- ऐसा निश्चय होनेपर ही सुख-दुःखसे मुक्त हुआ जा सकता है। शरीर हमें कोई अन्य नहीं देता है, वह तो हम स्वयं खड़ा करते हैं और वह भी अपनी इच्छासे, अपनी वासनासे। अपनी वासना, इच्छा परमात्मामें समा जाय। हम परमात्माको छोड़कर अन्य कोई इच्छा न रखें तभी हम मुक्त होंगे। इसलिये हम गृहस्थियोंके लिये तो परमात्मामें समानेके लिये सतत नामजप- सतत नामस्मरण ही सरल और अचूक उपाय है। अकेले अभ्याससे हम तर नहीं सकते। अभ्यास और वैराग्य दोनों चाहिये। गृहस्थाश्रम वैराग्य साधने और वासना निर्मूल करनेका अमोघ साधन है। हाँ, इसमें अभ्यासकी अनुकूलता कम रहती है, परंतु वैराग्य सम्पूर्ण सध जाय तो अभ्यास भले ही आधा क्यों न हो, तब भी उसे पूरा समझ लेना चाहिये। गृहस्थाश्रममें धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ता है और धीरे-धीरे वृत्तियाँ विषयभोगोंसे उपराम होती हैं। इसके उपरान्त भी वृत्तियाँ भोगोंकी ओर जाती हैं, तो विषय सहज प्राप्त रहनेसे- उन्हें त्यागपूर्वक भोग लेनेसे वासना क्षय होती है। इसलिये विषयोंको धीरे-धीरे भोगते हुए, उनसे वृत्तियोंको उपराम करते हुए, वैराग्यकी सीढ़ियाँ एक-एक चढ़ते हुए और साथ ही अभ्यास करते हुए अर्थात् नामस्मरण धीरे- धीरे सतत बढ़ाते हुए अन्तमें परमात्माकी प्राप्ति होनी ही है-ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।


प्रश्न- गीताजीमें भगवान्ने शरीर-तपके अन्तर्गत देव और द्विज-पूजनका वर्णन किया, माता-पिताकें पूजनका वर्णन क्यों नहीं किया ?

उत्तर-तप कहते ही उसे हैं जो क्रिया सामान्य न होकर विशेष हो। दिनमें दो बार भोजन कर लेना तप नहीं है- यह तो सामान्य बात है। दिनमें एक बार भोजन करना अथवा अन्न न लेकर फलाहार करना तप होगा। उसी प्रकार माता-पिताकी सेवा-शुश्रूषा आयर्योंकी दैनिक चर्या है-नित्य कर्म है। वह तपमें नहीं आयेगी।


निष्कर्ष

तपके जो मार्ग शास्त्रोंमें वर्णन किये गये हैं, वे महात्माओंने आचरण किये हैं। तपका मार्ग विधि- भावनायुक्त (श्रद्धायुक्त) अन्तःकरणमें स्वयं प्राप्त होता है और वह निष्पाप हृदयसे निकलकर आचरणद्वारा सिद्ध किया हो तो वह तप दूसरोंके आचरणमें लानेयोग्य होता है, दूसरोंके आचरण करनेयोग्य होता है, इसका यह अर्थ कि उसे दूसरे आचरणमें न ला सकें, ऐसा असाध्य नहीं होता। बहुत से व्यक्तियोंने वह तप तपा है, इससे सुसाध्य है। वह तप केवल दिमागकी कसरत नहीं है, कल्पनामात्र नहीं है बल्कि आचरण करके उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त होनेपर ही वह दूसरोंको बताया गया है। इसलिये हमलोगोंके भी कामका है। जो आचरणमें लाना चाहें वे सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक उसे काममें ले सकते हैं। परमात्मा सबका मंगल करें। [